संघ को लगता हैं तुलसी कृत रामायण वाल्मिक रामायण के अंतर का ही पता नही
यह कैसी विडम्बना हैं कि आयोध्या एयर पोर्ट वाल्मीकि के नाम से रख दिया और किसी ने वालमिक रचित रामायण के कुछ तथ्य पेश कर दिये तो उस ने माफी मांग ली परंतु संघ को तुलसी रचित राम चरित मानस और वालमिक रचित रामायण के अंतर द्वंद की जानकारी ही नही तो केवल उस एयर पोर्ट का नाम वालमिक से इसलिये कर दिया कि शायद कुछ वोट का प्रबन्ध हो सके, तुलसी जब यह कहते हैं मसजिद में रहिबो तो उससे दूरी बना दी जबकि आयोध्या का राम तुलसी रचित राम चरित मानस वाला हैं न कि वालमिक रचना अधारित l कोई संघ से पूछे यह जातियों की उत्पति कैसे हुई , जबकि वेद का संकल्प तो जन्म से शूद्र ही पैदा होता हैं उसके संस्कार ही उसे विशेष वर्ण में बांट देते हैं , जैसे गुरू नानक ने सवाल उठा दिया कि यह खुद की घड़ी ग्रंथियां हैं ” जोग शब्दं ग्यान शब्दं , वेद शब्दं ब्राहमन : l खतरी शब्दं सूर शब्दं ……..शूद्र शब्दं प्राकृत : जबकि सरब शब्दं एक शब्दं जे को जाणे भियो अर्थात यह हमारे खुद के घड़े घड़ाये हैं कि अलग अलग काम के आधार पर उनके धर्म बांट दिये जबकि सबका एक ही धर्म हैं जो इस रहस्य को जानता है वह हैं मानव धर्म l शायद संघ यह भी नही समझ पा रहा कि यह 12वीं से 15वीं शताबदी के बीच का समय था जब गुरू नानक, कबीर, नामदेव, रामानन्द, आदि ने क्रांतिकारी कदम उठाये जिसमें रमंती राम जो घट घट में रमा राम उस के अस्तित्व को खड़ा कर दिया जो सत्य और अहिंसा पर अधारित हैं तो जातिवादियों की समस्या का कारण राम चरित मानस महाकाव्य की रचना हुई जो आयोध्या नरेश , यह हालात भी नृप को ही भगवान मान लिया गया , रामायन के कयी लिखित आज भी मिलती हैं जिस की अलग अलग कथायें हैं परंतु जिस राम को संघ पेश करने पर तुला हैं वह राम चरित मानस अधारित हैं , air port का नामकरण कर खुद ही समस्या को खड़ा कर लिया तो ज़िम्मेदार कौन हैं यह सवाल तो उठेगा ही l यह वैसा ही हैं जब कोई खुद स्वर्ण जाति से हो और वोट की राजनीति के लिए उसे ही खुद की शक्तियों का उपयोग कर OBC स्थापित कर ले , उन सबको जातियों के इतिहास को जानना चाहिए , कम से कम दस हजार से अधिक जाति और उप जातियों का बखेड़ा हैं उन सब में भी आपसी द्वंद हैं यही हिन्दोस्तान की विडम्बना हैं यह गुलदस्ता हैं विभिन्न जाति, धर्मों, बोली, ढोली , संस्कृति , रहन सहन , खान पान आदि का फिर भी हम एक हैं , उसे एक बनाये रखना हमारी ज़िम्मेदारी भी हैं l यह जो रास्ता संघ ने चुना हैं क्या गुल खिलायेगा कहा नही जा सकता , यह यह भी नही समझ पा रहे कि मुगल सलतनत में मुस्लिम की आबादी 20 फीसद से उपर कभी नही रही बल्कि प्रशासन स्वर्ण हिन्दू के पास ही था यहां तक कि सेना का संचालन भी उन्ही के पास फिर भी राज किया , वृहद हिन्दोस्तान की स्थापना की , यह जो सजायें भी दी उस प्रशासन के माप दंडों पर अधारित थी , यह कहना भी गलत हैं कि सजा वे देते थे यह तो था अंतिम फैसला बादशाह का हो परंतु उस सजा को उन्ही प्रशासनिक व्यवस्था से ही execute करने का प्रावधान था , यह भी गलत हैं कि मन्दिर तोड़ कर मसजिद स्थापित की गई जबकि दोनों कौमों को साथ लाने के लिए दोनों का निर्माण साथ साथ किया गया ताकि आपसी समझ बने तभी तो मुगल शासन कर सके , गुरू नानक से गुरू गोबिन्द सिंघ तक मुगलों और गुरुओं के सम्बंध खट्टे मीठे रहे क्योंकि वे जानते थे कि गुरुओं के कारण ही हिन्दू और मुस्लिम की नजदिकियां आपसी समझ बनी रही , मिसाल के तौर पर दरबार साहिब अमृत्सर जिसे हरिमन्दिर के तौर पर भी जाना जाता हैं उस की नीव बादशाही पीर सायीं मियां मीर ने रखी, उसके चार दरवाजे परंतु आने जाणे का एक वह भी पश्चिम की तरफ उसकी वास्तुकला इसलामिक उसमें स्थापित गुरू ग्रंथ साहिब जिसमें गुरुओं के इलावा क्रांति कारी भगतों कबीर नामदेव, फरीद रामानन्द, पीपा, बेनी आदि और भट्टों की बाणी से सम्पादित का प्रकाश , यह खूबसूरती भी मुगल सलतनत के दौरान ही मिलती हैं l यह कहना भी गलत हैं कि मुगल काल में राज सत्ता के लिए अपने बाप के साथ ज्यादती की जाती थी यदि राजशाही के इतिहास के कुछ पन्ने ही बदल लें तो सत्ता की लालसा क्या गुल खिलाती हैं उस की अनेक मिसालों से इतिहास भरा पड़ा हैं , यहीं बस नही ज़िनके कारण आज भी इस प्रकार के उदाहरण लोक शाही में मिल जायेंगे l ज़रूरत इस बात की हैं कि आजादी बहुत ही कुर्बानियों के कारण मिली हैं इस को बनाये रखें, आपसी टकराव दूरियां पैदा करता हैं और आपसी समझ नजदिकियां आओ मिल बैठ कर संवाद का रास्ता अपनायें न कि विवाद का , यही राम मय होना हैं l दया सिंघ
